शाह मोहम्मद अफ़ज़ल हुसैन क़ादरी
शुरुआती ज़िन्दगी और तालीम
हज़रत शाह मोहम्मद अफ़ज़ल हुसैन क़ादरी रहमतुल्लाह अलैह एक ग़रीब लेकिन दीनदार घराने में पैदा हुए। बचपन में माँ का इंतक़ाल हो गया और परवरिश नानी ने की। ग़रीबी और यतीमी के बावजूद आप गम्भीर, ख़ामोश और सोच-विचार में डूबे रहते। आपने मक़ामी मक़्तब से उर्दू और हिंदी की बुनियादी तालीम हासिल की। ऊँची तालीम का मौक़ा न मिलने के बावजूद इल्म-ए-दीन और हक़ीक़त की प्यास उन्हें कलकत्ता ले गई। वहीं उन्होंने रोज़गार के साथ-साथ रूहानी तालीम और तरबियत का रास्ता अपनाया।
रूहानी सफ़र
तलाश-ए-हक़ और बैअत
कोलकाता में हज़रत ग़फूर शाह (र.अ) के ज़रिए उनकी मुलाक़ात हज़रत यूसुफ़ शाह (र.अ) से हुई। उनसे बैअत (अध्यात्मिक मार्गदर्शन) और ख़िलाफ़त प्राप्त की। हज़रत यूसुफ़ शाह (र.अ) ने आपको अपना जानशीन (उत्तराधिकारी) बनाया और हुक्म दिया कि बिहार लौटकर दीन-ए-हक़ की तालीम व तबलीग़ करें। यहीं से उनकी ख़ानक़ाही ज़िन्दगी की शुरुआत हुई।
ख़ानक़ाही व दीन की खिदमत
- आपका सिलसिला क़ादरिया, चिश्तिया और नक़्शबंदिया तीनों से जुड़ा हुआ है।
- बिहार लौटकर कुढ़ेता और दतरौल में तबलीग़ और बैअत का सिलसिला शुरू किया।
- जल्द ही आपके मुरीद और अकीदतमंदों की बड़ी तादाद हो गई।
तालीमात और फ़लसफ़ा
- आपकी तालीमात बहुत सादी लेकिन गहरी थीं, हमेशा कुरआन की रोशनी में तालीम देते।
- आपके अनुसार: "शरीअत जिस्म है, तरीक़त दिल है और मारिफ़त रूह है।"
- आप हर नसीहत में कुरआन की आयत पेश करते और कुरआन को दीन की असल बुनियाद मानते।
- मारिफ़त (ईश-ज्ञान) को इस्लाम की रूह बताते।
- रस्मी अमल से ज़्यादा सच्चाई और हक़ परस्ती पर ज़ोर देते।
- आपको अल्लामा इक़बाल (र.अ) की शायरी से बेहद लगाव था। कहा जाता है कि आपने ख्वाब में इक़बाल (र.अ) से मुलाक़ात और नसीहत भी पाई।
तसानीफ़ और अदबी खिदमत
नसरी तसानीफ़
- मअरका-ए-हक़
- हर्फ़-ए-लौह
- मग़ज़-ए-क़ुरआन
- बीस सौ बीस की दुनिया
शायरी का मजमुआ
- कलाम-ए-अजल (जिसमें ग़ज़लें, नज़्में और रूहानी शेर शामिल हैं)
ज़ाती और ख़ानदानी ज़िन्दगी
- आपने सिर्फ़ एक निकाह किया। आपकी बीवी कुलसुम बीबी सब्र और क़नाअत की बेहतरीन मिसाल थीं।
- उन्होंने आपके ख़ानक़ाही और तबलीग़ी कामों में पूरा साथ दिया।
- आप अक्सर सफ़र और दीन की ख़िदमत में रहते, घर की ज़िम्मेदारी बीवी निभातीं।
- तक़वा और हलाल रोज़ी पर सख़्त अमल करते।
- दुनियावी दिखावे से हमेशा दूर रहते।
- अपने मुरीदों को अक्सर नसीहत देते: "मौत से पहले मरो।"
- शायरी में "अजल" तख़ल्लुस इस्तेमाल किया।
वफ़ात और विरासत
16 जून 1994 (6 मुहर्रम 1415 हिजरी) को आप का विसाल हुआ, उम्र 63 बरस थी। वफ़ात के बाद आपके चेहरे पर रौनक़ और सुकून नज़र आया, जिसे क़ुर्ब-ए-इलाही की निशानी माना गया। आपका मज़ार दतरौल, जिला नवादा (बिहार) में स्थित है, जहाँ आज भी ज़ायरीन आते हैं।
विरासत और असरात
- आपकी तालीमात को मरकज़-ए-अफ़ज़लिया एजुकेशन ट्रस्ट के ज़रिए संगठित किया गया।
- आज भी आपके मुरीद और खानदान के लोग इस ट्रस्ट के माध्यम से तसव्वुफ़ की तालीम को आगे बढ़ा रहे हैं।
- आपकी किताबें और नसीहतें तसव्वुफ़ और मारिफ़त का क़ीमती ख़ज़ाना मानी जाती हैं।